Sunday 30 April 2017

ईमानदारी की कहानी :जीत किसकी?

लेखक : डॉ. नीरज मील 'नि:शब्द'

               ईमानदारी वर्तमान समय में अपनी प्रासंगिकता खोती जा रही है। देश में मूल्यों का पतन जारी है। सच की लालसा किसी को नहीं है। हर कोई स्वार्थ के लिए अंधाधुन्ध लालायत है। इन्ही सब के बीच है हमारे लेखाकार सत्यार्थ। जैसा नाम वैसा व्यवहार। सिर्फ सत्य को ही स्वीकार करने का जूनून है इन पर।

Friday 21 April 2017

संविदा नौकरी:बेबसी और सरकारी शोषण की कहानी

लेखक- डॉ. नीरज मील 'नि:शब्द'

भारत में हमेशा से ही राज में नौकरी को तवज्जो दी जाती रही है। सरकारी नौकर होना हमेशा अपने आप में सुरक्षित होने का, चिंतामुक्त होने का सबसे बड़ा वरदान माना जाता रहा है। कालांतर में तो नौकरी सरकारी होनी चाहिए फिर चाहे वो कैसी भी हो। ऐसा ही 2008 में हर्षित का सरकारी महकमें में लेखाकार के पद पर अनुबंधित नौकरी हेतु चयन होने पर उसके पूरे परिवार में हर्ष का माहौल था। हालांकि नौकरी की वजह से अपना जिला छोड़ने के गम का मिथक साथ में जरुर था।  आठ हज़ार मासिक कोई छोटी बात नहीं थी। लेकिन हर्षित की ये खुशियाँ ज्यादा दिन नहीं चली। न जाने किसकी नजर लग गयी, और हर्षित की खुशियों के ब्रेक तब लग गए जब कुछ ही महीनो बाद सरकार द्वारा छठा वेतन आयोग की शिफारिशे मान ली गयी और सभी स्थायी कार्मिकों के वेतन में करीब दो सौ फीसदी तक का इजाफा हुआ। जागरूकता और प्रतिस्पर्धा के चलते निजी क्षेत्र में भी आशानुरूप अभिवृद्धि हुई लेकिन हर्षित के मानदेय में कोई इजाफा नहीं हुआ। खैर देश के लोकतंत्र और संविधान में अटूट विश्वास था, उम्मीद थी कि देर-सवेर मानदेय में अपेक्षित अभिवृद्धि जरुर होगी।