Sunday, 30 April 2017

ईमानदारी की कहानी :जीत किसकी?

लेखक : डॉ. नीरज मील 'नि:शब्द'

               ईमानदारी वर्तमान समय में अपनी प्रासंगिकता खोती जा रही है। देश में मूल्यों का पतन जारी है। सच की लालसा किसी को नहीं है। हर कोई स्वार्थ के लिए अंधाधुन्ध लालायत है। इन्ही सब के बीच है हमारे लेखाकार सत्यार्थ। जैसा नाम वैसा व्यवहार। सिर्फ सत्य को ही स्वीकार करने का जूनून है इन पर।
   ईमानदारी वर्तमान समय में अपनी प्रासंगिकता खोती जा रही है। देश में मूल्यों का पतन जारी है। सच की लालसा किसी को नहीं है। हर कोई स्वार्थ के लिए अंधाधुन्ध लालायत है। इन्ही सब के बीच है हमारे लेखाकार सत्यार्थ। जैसा नाम वैसा व्यवहार। सिर्फ सत्य को ही स्वीकार करने का जूनून है इन पर। स्वभाव से सत्यार्थ बहुत ही सरल हैं और हमेशा मूल्यों को तव्वजों देते रहे हैं। स्वाभिमान के खातिर तो अपनी जान की बाजी भी लगाने से नहीं चुकने वालों में हैं। शरीर के हष्ट-पुष्ट और उच्च स्वास्थ्य के धनी भी हैं। इतना ही नहीं अनेकों विधाओ यथा- पाक कला, खेल, तकनिकी ज्ञान, लेखन, भाषण आदि में प्रवीण हैं व शहीदे आजम भगत सिंह के विचारों से प्रभावित, कुल मिलाकर आज के समय के आलराउन्डर कहे जा सकते हैं। आज से नौ साल पहले अपनी बी।कॉम की शिक्षा पूरी करके अपने बेहतर और सुरक्षित भविष्य के लिए सपने संजोयें। इन्ही सपनों के खातिर लेखाकार की परीक्षा में अपनी श्रेणी में अव्वल रहे। मन के संसार और सामाजिक जीवन में सरकारी नौकर का एक नया सम्मान लेकर प्रफुल्लित हुए। 

        कॉलेज से निकलते ही सरकारी नौकरी मिल जाना वास्तव में आज के समय में बड़ी बात होती। जैसा की सत्यार्थ क्रन्तिकारी विचारधारा से ओत-प्रेत होने की वजह से नौकरी चढ़ते वक्त अपने कर्तव्य को पूर्ण निष्ठा और ईमानदारी से करने की  प्रतिबध्दता दोहराई। खैर नौकरी चली ज़िन्दगी भी दौड़ाने लगी। विवाह की चर्चा होने लगी। जैसा कि हर पुरुष सोचता है वैसे ही सत्यार्थ ने भी सोचा। सोचा कि सुन्दर भले ही कम हो लेकिन चरित्रवान हो। भले ही नादान हो लेकिन आज्ञाकारी पत्नी हो, हर एक मोड़ जहा उसे आवश्यकता हो वहां साथ दे,आदि। ज़िन्दगी अपनी रफ़्तार से चल रही थी। अचानक दफ्तर में एक महिला अफसर का आगमन हुआ। सत्य का प्रकाश दूर-दूर तक होता है ठीक उसी प्रकार सत्यार्थ की कार्यशैली और कार्य व्यवहार भी आस पास के क्षेत्र में प्रचारित था। इसी ख्याति के चलते दफ्तर के सारे कार्मिक मिथ्यात्मक इर्ष्या भी कर बैठे और उसे नीचा दिखने के अवसर खोजने लगे। महिला अफसर चंचल प्रवृति की थी और भ्रष्टाचार करने वाली भी। कहते है सत्य हर जगह परखा जाता है। अब बारी थी सत्यार्थ की। जब महिला अफसर ने देखा कि सत्यार्थ अविवाहित है तो उसको अपने जाल में फ़साने के तरीके आजमाने लगी। लेकिन सत्यार्थ वास्तव में व्यावहारिक भी था। वो अफसर की चल समझ चुका था और कोई लगाव भी उसके साथ नहीं बना था। महिला अफसर ने अफसरशाही करते हुए सत्यार्थ को भ्रष्ट होने के लिए अनेकों प्रकार के दबाव बनाने लगी, लेकिन असफल रही। इसी बीच सत्यार्थ की सगाई हुई। सत्यार्थ को मंगेतर के रूप में अश्मिता मिली। 

आखिरकार जिले के उच्च-अधिकारीयों को गुमराह करने की सोचकर अफसर महिला ने एक षड्यंत्र रचा। एक झूठी शिकायत करके सत्यार्थ को बर्खास्त करने की साज़िश रची गई। अपने अधिकारों की धौंस दिखाते हुए एवं भ्रष्टाचार में साथी बनाते हुए उपरी लाभ का झांसा सभी कार्मिकों दिया और सत्यार्थ के खिलाफ खड़ा कर दिया। सभी को मौका चाहिए था इसलिए जल्दी सी झांसे में आ गए। उच्च अधिकारीयों ने अपने कैडर का पक्ष लेते हुए एक समिति बना डाली और समिति के सामने सभी ने रेटे हुए बयान दे दिए। फलस्वरूप सत्यार्थ को पद सेवा से बर्खास्त कर दिया गया। अब शुरू हुआ सत्यार्थ के जीवन में संघर्ष का अध्याय। इस संघर्षमय जीवन में सबसे पहले समर्थन वापसी हुई उसकी पत्नी के द्वारा। सत्यार्थ की सबसे बड़ी उम्मीद टूटी लेकिन सत्यार्थ नहीं टूटा क्योंकि एक मजबूत स्तम्भ उसे सहारा दिए खड़ा था। ये मजबूत स्तम्भ था उसका मित्र विश्वास। ऐसी स्थिति में जैसा कि अक्सर होता है रिश्तेदार मुह मोड़ लेते है वैसा सत्यार्थ के साथ भी हुआ। मित्र के सहारे सत्यार्थ आगे बढ़ा और तथाकथित ईमानदार नेताओ और अफसरों सभी को परखा लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। अंत में वही हुआ जो अक्सर होता है सत्यार्थ ने भी न्यायालय की शरण ली। न्यायालय में न्याय हुआ, बर्खास्तगी स्थगित हुई और सत्यार्थ की वापसी भी हुई। 
                  अब सत्यार्थ और भी चौकन्ना हो कर काम करने की ठान चुके थे लेकिन भ्रष्ट तंत्र को सत्यार्थ की वापसी नागवार गुजरी। सत्यार्थ ने वापसी तो कर ली लेकिन असल में संघर्ष बढ़ गया। अब न तो सत्यार्थ के पास कोई कार्यभार था और न ही अधिकार। केवल न्यायालय का स्थगन आदेश था। रोज दफ्तर जाता, अपेक्षित सा और निठला बैठा रहता। बार-बार उचाधिकारियों को इस हेतु अवगत भी करता रहा लेकिन भ्रष्ट तंत्र में कोई सुनवाई नहीं हुई। इसी तरह सात साल गुजर गए। दोस्त और स्वयं की शादी हो गयी बच्चे हो गए। न सत्यार्थ को कार्यालय द्वारा वेतन अभिवृद्धि दी गयी और न बढ़ा हुआ वेतन। हालांकि इस बीच अधिकारी जरुर बदलते गए। प्रत्येक अधिकारी ने वर्तमान में भी केवल भूतकाल के अनुसरण सिवा और कुछ भी नहीं किया। सत्यार्थ ने सारे प्रयास किये सिवाय अपने स्वाभिमान और ईमान को बेचने के लेकिन सफल नहीं हो सका। अब सत्यार्थ ने न्यायालय की सुप्त पड़े अपने केस को लड़ा और बहाल हुआ। बावजूद इसके विभाग कभी भी सत्यार्थ का न हो सका। इसी के चलते सत्यार्थ ने अपनी नौकरी ही छोड़ दी। ये अभी तक अस्पष्ट ही है कि जीत किसकी हुई ? विभाग की, सिस्टम की, अधिकारी की या फिर हार हुई ईमानदारी की, सत्यार्थ की? जो भी हो, बिना संघर्ष के ईमानदारी का कोई महत्व नहीं है।
* नोट- यह एक कहानी मात्र है...
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