सुना है कि सपने पारे की बूँद की तरह होते है जो हकीकत के गर्म थपेड़े पड़ते ही बिखर जाते है फिर चाहे वो थोड़े सच या पुर्णतः सच हो या होने वाले हो कोई फर्क नहीं पड़ता है। वे सच होते हुए भी या न होते हुए भी एक हकीकत हो सकते हैं। फिर भी मनुष्य सपने देखना नहीं छोड़ता। शायद मनुष्य का जन्म से ही सपनों के दिव्य संसार से नाता जुड़ जाता है। स्वप्न चर्चा पर मुझे एक कवि की कुछ लाइन याद आ रही है जो हर एक के स्वप्न देखने के बाद की मनोदशा प्रतिनिधित्व जरुर करती है। यथा -
"वही महफिले हैं, वही रौनके -महफ़िल,लेकिन कितने बदले हुए आदाब नजर आते हैं।
कल ख़्वाब बेशक हकीकत में बदल जायें लेकिन आज तो ख़्वाब फकत ख़्वाब ही नज़र आतें हैं।।"
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