लेखक- डॉ. नीरज मील 'नि:शब्द'
भारत में हमेशा से ही राज में नौकरी को तवज्जो दी जाती रही है। सरकारी नौकर होना हमेशा अपने आप में सुरक्षित होने का, चिंतामुक्त होने का सबसे बड़ा वरदान माना जाता रहा है। कालांतर में तो नौकरी सरकारी होनी चाहिए फिर चाहे वो कैसी भी हो। ऐसा ही 2008 में हर्षित का सरकारी महकमें में लेखाकार के पद पर अनुबंधित नौकरी हेतु चयन होने पर उसके पूरे परिवार में हर्ष का माहौल था। हालांकि नौकरी की वजह से अपना जिला छोड़ने के गम का मिथक साथ में जरुर था। आठ हज़ार मासिक कोई छोटी बात नहीं थी। लेकिन हर्षित की ये खुशियाँ ज्यादा दिन नहीं चली। न जाने किसकी नजर लग गयी, और हर्षित की खुशियों के ब्रेक तब लग गए जब कुछ ही महीनो बाद सरकार द्वारा छठा वेतन आयोग की शिफारिशे मान ली गयी और सभी स्थायी कार्मिकों के वेतन में करीब दो सौ फीसदी तक का इजाफा हुआ। जागरूकता और प्रतिस्पर्धा के चलते निजी क्षेत्र में भी आशानुरूप अभिवृद्धि हुई लेकिन हर्षित के मानदेय में कोई इजाफा नहीं हुआ। खैर देश के लोकतंत्र और संविधान में अटूट विश्वास था, उम्मीद थी कि देर-सवेर मानदेय में अपेक्षित अभिवृद्धि जरुर होगी।
जिंदगी में जो घटनायें घटित होनी है वो होकर ही रहती हैं। हर्षित की ज़िन्दगी में भी कुछ ऐसा ही हुआ शादी हुई, उसके जीवन में रचना नाम की जीवनसंगिनी प्रवेश हुआ। नयी-नयी शादी के आनंद में हर्षित का गम कुछ समय के लिए गायब हुआ। शादी के उन्नीस माह बाद मानदेय अभिवृद्धि के इंतेज़ार में एक लड़का हुआ। माँ-बाप बनना एक दम्पति के जीवन में सबसे बड़ी ख़ुशी होती है लेकिन अल्प मानदेय का एक बड़ा गम भी हर्षित के साथ था जो इस सबसे बड़ी ख़ुशी को भी फीका कर रहा था। इस दौरान दुसरे कैडर के संविदा कार्मिक स्थायी भी हो गए, रह गए हर्षित जैसे। कहते है लोकतंत्र बहुमत में चलता है। दुर्भाग्य से इनका कोई कैडर ही नहीं था सो बहुमत बहुत दूर की बात थी। सरकार के केवल वायदे मिले और वादों का क्या? इसी बीच सातवा वेतन आयोग ओर आ गया। लेकिन हर्षित तो वहीँ के वहीँ।।।।एक चपरासी का वेतन भी इनके मानदेय से छ: गुना हो चला था। हर्षित और हर्षित जैसे संविदा कार्मिक पिछड़ते चले गए। इस दौरान काफी ज्ञापन दिए गए सरकार और आला अधिकारीयों को लेकिन स्थिति वहीँ ढ़ाक की पात। समय बिता अधिकारीयों द्वारा अनुबंधित कार्यों के अलावा भी बहुत सारे कामों का भार डाल दिया गया। इतना ही नहीं रविवार या अन्य राजकीय अवकाश के दिन भी दफ्तर आने के आदेश आम बात हो गयी, हालांकि ये अनुबंधित शर्तों के खिलाफ होता है। बात जब एवज या हर्षित के हित की आती तो अधिकारी अनुबंध में बंधे होने का बहाना करके अपना पल्ला झाड़ लेते। ऐसा प्रत्येक संविदा कार्मिक के साथ होता ये मानते हुए हर्षित को ये स्वीकार करना ही पड़ा। बेबसी के चलते अपने साथ हो रहे बर्बरतापूर्वक अन्याय, शोषण और अधिकारों के हनन को सहन करना ही पड़ा। हर्षित के पास थी तो केवल एक उम्मीद "स्थायी सरकारी नौकरी की", जो उसे सब कुछ सहन करने की ताकत दे रही है।
स्थिति बड़ी ही विचित्र हो चली थी। ना मानसिक संबलता थी, न आर्थिक सशक्तिकरण। इसी के चलते न पत्नी से, और न ही घर वालों से इज्ज़त मिल रही थी, बाकि जगह से उम्मीद करना भी नाफरमानी ही था। क्योंकि इज्ज़त तो इस ज़माने में रुपयों को ही मिलती है। वर्तमान परिपेक्ष का यही सबसे दुर्बल पहलु है कि मनुष्य के लिए इज्ज़त बची ही नहीं। इसी बीच बेटा बड़ा हुआ। स्कूल में प्रवेश की बात आई। एक ओर जहां बेटे के स्कूल जाने पर एक पिता में उत्साह और उमंग का संचार होना चाहिए तो दूसरी ओर भविष्य के सपनों के ताने-बाने बुनने का अवसर भी यही से शुरू होते हैं। लेकिन हर्षित के लिए दोनों ही दूर की कौड़ी साबित हो रही थी। आठ हज़ार मासिक अब केवल देश में बीपीएल का ठप्पा लगने से बचाने के अलाव कुछ नहीं कर सकते।
पत्नी - बेटे के लिए किस स्कूल का नाम सोचा है? मैं सरकारी स्कूल में दाखिला किसी भी सूरत में नहीं करूंगी।
हर्षित - ठीक है मैं RTE(right to Education) के अंतर्गत किसी भी प्राइवेट स्कूल में इसका दाखिला करवा सकता हूँ।
पत्नी - शहर की स्कूल में भी ?
हर्षित -अरे नहीं, केवल गाँव के स्कूल में। जहाँ के हम मूल निवासी हैं।
पत्नी - मतलब हमारा तबादला हो जायेगा अपने जिले में!
हर्षित- अरे नहीं यार, अगर हमें अपने बेटे का RTE(right to Education) के अंतर्गत किसी भी प्राइवेट स्कूल में इसका दाखिला दिलवाते हैं तो उसे गाँव भेजना होगा।
पत्नी - फिर क्या फायदा ? इस तरह तो ये अधिकार नहीं मजाक है हमारी विवशता का।
हर्षित - वो तो है, खैर प्राइवेट स्कूल में पढ़ाने का तुम्हारा सपना नहीं टूट रहा।
पत्नी - मेरे तो सपने हु नहीं किस्मत ही फूटी है। जो एक संविदा कार्मिक से शादी हुई।
हर्षित - तो क्यों की पहले सोचना चाहिए था न।
पत्नी - यही तो गलती हो गयी।
हर्षित - तो अब भुगतो। बेटे का दाखिला सरकारी हिंदी माध्यम की स्कूल में ही करवा देता हूँ ।
यह लड़ाई न केवल हर्षित बल्कि प्रत्येक संविदा कार्मिक के लिए कोई नयी नहीं होती है, बल्कि रोज की बात होती है। हर्षित ने प्रधान मंत्री को इंट्रेकट विथ पीएम और अन्य डिजिटल और नॉन डिजिटल माध्यमों का चयन करते हुए अपनी और अपने साथियों की ये पीड़ा प्रधानमंत्री को लिखी। परिणाम वाही हुआ जो भारत में आज़ादी के बाद से होता आया है। प्रधानमंत्री कार्यालय ने हर्षित के विभाग को लिखते हुए हर्षित को एक प्रति प्रेषित कर दी। हर्षित हर्षा गया और उमीदों के पुल बाँधने में व्यस्त हो गया। बावला आश्वस्त हो गया कि इस बार जरुर सुनी जायेगी। हर्षित की मेहनत रंग लाई, सालाना दस फीसदी वार्षिक अभिवृद्धि बंद कर दी गयी। सभी संविदा कार्मिकों को बड़ा ही धक्का लगा इस फैसले से कुछ को सदमा भी, लेकिन बेबस हैं सभी। वर्तमान तथाकथित लोकतंत्र में संविदा कार्मिक के पास तो विरोध करने का न बुनियादी हक़ होता और न सामर्थ्य। होती है तो मजबूरी स्वीकृति की। स्थिति ये है कि हर्षित जैसे कई काबिल युवा जो उच्च योग्यताधारी हैं लेकिन अपनी ज़िन्दगी के सबसे अहम् युवा नौ साल तो संविदा की नौकरी को भेंट कर दिए थे। अब हर्षित के पास सरकार की प्रतिदाय की उम्मीद रखने के अलावा कुछ नहीं रहा। थक हार कर हर्षित ने पुनः साथियों को संगठित करने का विचार किया और न्याय के लिए न्यायालय की शरण में में जाने का प्रस्ताव रखा। कुछ गिने-चुने लोगों को छोड़कर सबने विरोध करने के इस अंदाज़ को एतद् ठुकरा दिया लेकिन हर्षित ने हार नहीं मानी और कुछ साथियों के साथ न्याय की आस में उच्च न्यायालय जा पहुंचा। फिर क्या था तारीख पे तारीख मिलती रही मुकदमा चलता रहा।
एक दफ़ा हर्षित की पत्नी ने पुच्छा "अजी मुकदमा इतना लम्बा क्यों खींचता जा रहा है, तो हर्षित ने कहा "लगता है देश में न तो काबिल वकील है और न ही काबिल जज।" मुक़दमे को लम्बा खींचते हुए देखकर अब तो हर्षित ने भी अपनी धारणा ही बदल ली। उसे अब लगने लगा कि न्याय की उम्मीद कोरी कल्पना है यहां। पता नहीं दुनिया में बने हुए मानवाधिकार आयोग जैसे आयोग कहा गायब हो गए हैं! लेकिन इतना सब होने के बावजूद हर्षित ने हार नहीं मानी और विभाग के मंत्री से व्यक्तिगत मिलने की सोची। साथियों से बात की सभी ने हर्षित के फैसले का स्वागत किया। तय हुआ कि सोमवार को मंत्री से मिला जाए। विभाग के मंत्री से वार्ता हुई तो बात सामने आई कि सरकार दस साल बाद भी हर्षित जैसे संविदा कार्मिकों के भविष्य को लेकर संजीदा नहीं है। सरकार में जरा भी लोक कल्याण की भावना शेष नहीं है। अब हर्षित को मआववादी, नक्सलवादी जैसे बागी लगने लगे हैं और देश द्रोह की परिभाषा ही बदल गयी है। कितना कुछ बदलाव आदमी में कब आ जाये पता ही नहीं चलता।
आदमी इतना सब हो जाने के बाद, सब कुछ ज्ञात हो जाने के बाद, इतने वर्षों के इंतज़ार के बाद हर कोई टूट जाता है, बिखर जाता है लेकिन हर्षित न टूटा, न बिखरा। मजबूरी थी या मजबूती ये तो वक्त ही बताएगा लेकिन इतना तय है कि वर्तमान में लोकतान्त्रिक सरकारें जरूर मजबूत हो चुकी हैं। सरकारों में न संवेदना शेष है और न ही नैतिकता। कारण जो भी हो लेकिन असफलता सरकार की ही मानी जाएगी, हर्षित और हर्षित का अकेला ऐसा परिवार नहीं है जो इस स्थिति से गुजर रहा है बल्कि लाखों लोग और लाखों परिवार इस भयानक स्थिति से रूबरू हो रहे है। कुछ टूट रहे हैं तो कुछ बिखर रहे हैं। जिस प्रकार स्थिति चल रही है, योज़नाये बन रही है, संविदा कार्मिकों की अनदेखी की जा रही है वो न केवल बर्बरतापूर्वक है बल्कि अमानवीय भी है। सरकार के इस रूख से संविदा कार्मिकों में व्यप्त असंतोष अपनी सारी परकाष्ठा पार करने को उतारू है और कुछ भी कर गुजरने को उतारू है। इसी के चलते अब हर्षित को अपना भविष्य एक मआववादी या नक्सलवादी के रूप में बागी नज़र आने लगा है। लेकिन सोच रहा है क्या करें संविदा की नौकरी जो ठहरी। संविदा की नौकरी का कड़वा सत्य ये है कि संविदा की नौकरी 5 साल करने के बाद व्यक्ति की स्थिति धोबी के कुत्ते जैसी हो जाती है, जो न घर का होता है न घाट का। ये दुर्गति है या दुर्दशा जो भी कहे लेकिन है एक संविदा कार्मिक की।
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